महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 200 वी जयंती और बसंत पंचमी

महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 200 वी जयंती और बसंत पंचमी के शुभ अवसर पर जिला आर्य सभा आरा श्रद्धानंद भवन आर्य समाज आरा एमपी बाग आरा में दिनांक 11फरवरी 2024 रविवार से 12फरवरी 2024 तक प्रातः कालीन यज्ञ 8:00 बजे और वेदों की ओर लौटो प्रवचन कार्यक्रम, महर्षि दयानंद सरस्वती की जीवन चरित्र के बारे में बताया गया | और 14 फरवरी 2024 दिन बुधवार को बसंत पंचमी के शुभ अवसर पर प्रातः कालीन यज्ञ 8:00 से इसके उपरांत प्रवचन कार्यक्रम और शांति पाठ का संपन्न किया गया | जिसकी अध्यक्षता अवध बिहारी मेहता प्रधान ने किया | जिसमें यजमान नीरज कुमार कोषाध्यक्ष, मुख्य पुरोहित मंत्री डॉ प्रकाश रंजन के द्वारा यज्ञ संपन्न हुआ | यज्ञ उपरांत मंत्री प्रकाश रंजन जी ने कहा की
🚩‼️ओ३म्‼️🚩

 

🔥 जिस क्रिया से शरीर , मन और आत्मा उत्तम हो उसे संस्कार कहते है। जैसे सुनार अशुद्व सोने को अग्नि में तपाकर उसे शुद्ध कर देता है। वैसे ही वैदिक संस्कृति में उत्पन्न होने वाले बालक को संस्कारों की भट्टी में डालकर उसके दुर्गुणों को निकालकर उसमें सदगुणों को डालने का प्रयास किया जाता है। इसी प्रयास को संस्कार कहते है।

जिस प्रकार सुन्दर , आकर्षक बगीचे का निर्माण के लिए एक- एक पौधे को नियोजित ढंग से लगाया जाता है। समय-समय पर निराई-गुडाई-सिंचाई-कटाई-छंटाई होती रहती है, तब तैयार होता है। उसी प्रकार एक अच्छे परिवार-समाज के निर्माण के लिए हमें प्रत्येक बच्चे के साथ संस्कार रूपी नियोजित कार्यक्रम अपनाना चाहिए।

उत्तम सन्तान के निर्माण के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती जी “सत्यार्थ प्रकाश” के द्वितीय समुल्लास में लिखते है कि माता-पिता को उचित है कि गर्भाधान से पूर्व, मध्य और पश्चात मादक द्रव्य, महा दुर्गन्ध, अंडा, बुद्धिनाशक पदार्थों को छोड़कर जो शक्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता को प्राप्त करायें ऐसे धृतं, दुग्ध, मिष्ट, अन्नधान आदि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करे कि जिससे रज-वीर्य भी दोषों से रहित होकर अत्युत्तम गुण युक्त हो, जिससे स्वस्थ एवं उत्तम गुण युक्त सन्तान जन्म लेगी।

जैसे भोजन ( जो भी पदार्थ खाया है ) शरीर का अंग बन जाता है। अच्छा भोजन, अच्छा शरीर, खराब भोजन, खराब शरीर इसी प्रकार संस्कारों से मन में वैचारिक वातावरण तैयार होता है।अच्छे विचार, अच्छे कर्म, अच्छे फल अर्थात् सुख पाने के लिए संस्कारों की महती आवश्यकता है।

जब एक व्यक्ति बिगड़ता है, तो हजार को बिगाड़ देता है। तथा जब एक व्यक्ति सुधरता है, तो हजारों को सुधार देता है।इसलिए संस्कारों की आवश्यकता है।
प्रधान अवध बिहारी मेहता जी ने कहा कि 6 सितंबर 1872 को महर्षि दयानंद सरस्वती जी के आगमन पर बिहार का पहला आर्य समाज आरा था | जो महर्षि के द्वारा स्थापना हुआ था | एक दिवस महर्षि के द्वारा प्रवचन कार्यक्रम आयोजन किया गया था | उसके बाद से साप्ताहिक यज्ञ रविवार को होता रहा है | विभिन्न कार्यक्रम का आयोजन होते आता रहा है |

युगपरिवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती को कोटि-कोटि नमन !

गत वर्ष भारत सरकार ने महर्षि दयानन्द की 200वीं जयन्ती एवं आर्यसमाज के 150वें स्थापना दिवस सम्बन्धी दो वर्षीय ” ज्ञान ज्योति पर्व ” मनाने का निर्णय लिया जिसका शुभारम्भ माननीय प्रधानमंत्री जी ने किया। इसके लिए भारत सरकार का सहृदय धन्यवाद।

इस वर्ष स्वामी दयानन्द की 200वीं जयन्ती हर्षोल्लास से टंकारा में 10-12 फरवरी को मनाई जा रही है। इसका उद्घाटन गुजरात के राज्यपाल आचार्य
देवव्रत जी ने किया। आर्य समाज के विचार, वैदिक संस्कृति को जन जन तक पहुंचाने के लिए राज्‍य सरकार यहां 250 करोड की लागत से स्‍मारक बनवाऐगी। राज्‍यपाल महोदय ने हर वर्ष एक करोड़ रुपये देने की घोषणा की तथा जयन्ती समारोह के उद्घाटन के पश्चात् यहां उपस्थित लोगों को वैदिक परम्परा को एवं वैदिक संस्‍कृति को जन जन तक पहुंचाने का संकल्‍प दिलाया।

आज 11 फरवरी 2024 दिन रविवार को माननीय प्रधानमंत्री ने टंकारा में आयोजित दयानन्द जयन्ती समारोह में वर्चुअल शुभकामना संदेश दिया और स्वामी जी के समाज उद्धार और स्वराज्य उद्घोष को स्मरण करते हुए, श्रद्धांजलि दी।

कल 12 फरवरी को महामहिम राष्ट्रपति जयन्ती समारोह को सम्बोधित करेंगी।

क) ऋषि दयानन्द : संक्षिप्त जीवन-परिचय

स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म-नाम मूलशंकर था। उनका जन्म फाल्गुन बंदी दशमी विक्रम सम्वत् 1881, तदानुसार 12 फरवरी 1824 में टंकारा ( काठियावड़, मौरवी राज्य– गुजरात) में हुआ। उनके पिता श्रीकर्षणजी तिवाड़ी, शिवभक्त औदीच्य ब्राह्मण थे। सन् 1834 में मूलशंकर ने पिता के आदेश पर, शिवरात्रि का व्रत रखा। अर्ध रात्रि में मूषकों को मूर्ति पर चढ़े प्रसाद को खाते देख कर, उनका मूर्ति पूजा में विश्वास टूट गया और उन्होंने सच्चे शिव को पाने की ठान ली।

तत्पश्चात् प्रिय बहिन व सम्माननीय चाचा की मृत्यु के उपरान्त, उन्हें वैराग्य हो गया। उनकी इस प्रवृत्ति के कारण, माता – पिता ने इनकी इच्छा के विरुद्ध, उनका विवाह करने की तैयारी शुरू कर दी। मूलशंकर 22 वर्ष की आयु में सच्चे शिव की खोज में घर छोड़ कर चले गए। उन्होंने 24 वर्ष की आयु में दाक्षिणात्य दण्डी स्वामी पूर्णानन्द जी ने सन्यास की दीक्षा ली। गुरु महाराज ने उनका नाम स्वामी दयानन्द सरस्वती घोषित किया।

तदुपरान्त स्वामी दयानन्द ने योगी ज्वालानन्दगिरि जी महाराज तथा योगी शिवानन्दगिरि जी महाराज से क्रिया समेत पूर्ण योग विद्या प्राप्त की। उप प्रधान डॉक्टर सुखलाल प्रसाद जी ने कहा की

स्वामी जी ने सन् 1860 – 63 में प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द से वेद एवं संस्कृत व्याकरण की शिक्षा प्राप्त की। गुरु ने दक्षिणा में शिष्य दयानन्द से आजीवन वेद तथा आर्ष ग्रथों के प्रचार-प्रसार का प्रण लिया जिसे उन्होंने प्राणों की बलि देकर निभाया।

वेद प्रचार के लिए यजुर्वेद भाष्य, ऋग्वेद भाष्य ( ७ मण्डल सूक्त ६१ मंत्र २ तक), ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, सत्यार्थप्रकाश, संस्कार विधि आदि उनके कालजयी ग्रंथ हैं।

वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु , उन्होंने 10 अप्रैल 1875 को बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की जिसने राष्ट्र निर्माण तथा देश की स्वतन्त्रता के लिए सराहनीय कार्य किया।
उप प्रधान महावीर विद्यासागर जी ने कहा की
ख) स्वामी दयानन्द को महर्षि क्यों कहा जाता है ?

मुनि यास्ककृत निरुक्त के अनुसार : ” ऋषयो मन्त्रद्रष्टारा:” अर्थात् जो वेद मंत्रों के अर्थों का साक्षात्कार करते हैं, उनकी व्याख्या करते हैं, वे ऋषि हैं।

स्वामी दयानन्द ने वेद के मंत्रों की उत्कृष्ट व्याख्या की जिसकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए योगी अरविन्द ने अपनी पुस्तक ” The Secret of the Veda ” ( वेद का रहस्य ) में लिखा : ” दयानन्द ने हमें ऋषियों के भाषा- रहस्य को समझने का सूत्र दिया है तथा वैदिक धर्म के मूलभूत सिद्धान्त को रेखांकित किया कि विविध नामों वाले देवता एक ही सत्ता ( ईश्वर) की विविध शक्तियों को दर्शाते हैं । ”

इस संदर्भ में, स्वामी दयानन्द “मन्त्रद्रष्टा” होने से महर्षि कहलाते हैं।

इसके अतिरिक्त ऋग्वेद (10.26.5) का मंत्राश है :
” ऋषि: स यो मनुर्हित:” ।
अर्थात् ऋषि वही है जो मानवमात्र का हितैषी हो।

स्वामी दयानन्द ने दलितों के प्रति अमानवीय छुआछूत, विधवाओं के प्रति दुर्व्यवहार, सतीप्रथा, स्त्रियों का शिक्षा निषेध आदि कुप्रथाओं के उन्मूलन के लिए समाज को जागृत किया।

स्वामी जी का देहान्त उनके रसोईए जगन्नाथ द्वारा दूध में विष मिला कर देने से हुआ। जब आभास हुआ कि उन्हें विष दिया गया है, उन्होंने रसोईए को बुलाया। उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। स्वामी जी ने कहा : जगन्नाथ तुम नहीं जानते तुम ने कितनी भारी क्षति की है। मेरी चारों वेदों के भाष्य की इच्छा पूरी नहीं हो पाईं। तत्पश्चात् स्वामी जी ने उसे कुछ पैसे दिए और नेपाल भाग जाने की सलाह दी। जगन्नाथ अश्रुपूर्ण क्षमायाचना व धन्यवाद सहित पैसे ले कर चला गया।

जब सुकरात को विष पिलाया गया तथा ईसामसीह को सूली पर लटकाया गया, उन्होंने दुष्कर्मियों को यह कह कर क्षमा कर दिया कि ये नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। परन्तु स्वामी दयानन्द क्षमादान में इन महापुरुषों से भी आगे चले गए।

अपने हत्यारे पर भी दया करने वाले, उसका हित करने वाले, उसे जीवनदान देने वाले, स्वामी को महर्षि सम्बोधित करना, अनुचित है ?

इस के अतिरिक्त उनके क्रांतिकारी विचारों के लिए, उन्हें 17 बार विष दिया गया जो उन्होंने योग क्रिया से निरस्त कर दिया। एक बार किसी पथभ्रष्ट ने उन्हें विष दे दिया। दरोगा ने दोषी को बन्दी बना लिया और स्वामी जी को यह सूचना देने के लिए आया। स्वामी जी ने उन्हें दोषी को मुक्त करने का आदेश दिया, यह कहते हुए :” मैं लोगों को बन्धनों से मुक्त कराने आया हूं, बन्दी बनाने नहीं।” कई बार उन पर जानलेवा हमले किए गये , परन्तु वे वेदविहित सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार में अडिग रहे।
पाॅल रिचर्ड ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है :

” स्वामी दयानन्द निसंदेह एक ऋषि थे। उन्होंने अपने विरोधियों द्वारा फेंके गए ईद – पत्थरों को शांतिपूर्वक सहन कर लिया। उन्होंने अपने में महान् भूत और भविष्य को मिला दिया। वह मर कर भी अमर हैं। ऋषि का प्रादुर्भाव भारत को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था । ऋषि का आदेश है ” आर्यावर्त ! उठ, जाग, अब समय आ गया है, नए युग में प्रवेश कर, आगे बढ़।”

ग) स्वतन्त्रता संग्राम में महर्षि दयानन्द का योगदान :

महर्षि दयानन्द सरस्वती उच्च कोटि के राष्ट्रभक्त थे। उन्होंने देश को एकजुट करने के लिए हिन्दी भाषा को अपनाने का आह्वान किया। मातृभाषा गुजराती होते हुए तथा संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पंडित होते हुए , उन्होंने वेदों का भाष्य तथा अपने कालजयी ग्रन्थ ‘ सत्यार्थप्रकाश ‘ एवं ‘ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ‘ का लेखन हिन्दी भाषा में किया। जन सामान्य को सम्बोधित करने वाले कार्यक्रमों के दौरान वे राजा – महाराजाओं के निवास पर रहते थे, तथा उन्हें वेद और मनुस्मृति के आधार पर राजधर्म का उपदेश दिया करते थे एवं स्वराज्य के लिए प्रेरित किया करते थे। सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में उन्होंने लिखा है :

” कोई कितना ही करें परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है।”

i) लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक —

” ऋषि दयानन्द जाज्वल्यमान नक्षत्र थे जो भारतीय आकाश पर अपनी आलौकिक आभा से चमके और गहरी निद्रा में सोए हुए भारत को जागृत किया। ‘ स्वराज्य ‘ के वे सर्वप्रथम संदेशवाहक तथा मानवता के उपासक थे। ”

ii) अनन्तशयनम् अय्यंगार —

” गांधीजी राष्ट्र के पिता थे तो महर्षि दयानन्द सरस्वती राष्ट्र के पितामह थे। महर्षि हमारी राष्ट्रीय प्रवृत्ति और स्वाधीनता-आंदोलन के आद्य प्रवर्तक थे। गांधीजी उन्हीं के पद-चिन्हों पर चले। ”
“यदि महर्षि दयानन्द हमें मार्ग न दिखाते, तो अंग्रेजी शासन में उस समय सारा पंजाब मुसलमान बन जाता और सारा बंगाल ईसाई हो जाता। महर्षि जी ने सारे विश्व को “आर्य” बनाने की प्रेरणा दी। ”

iii) विट्ठलभाई पटेल ( सरदार पटेल के बड़े भाई ; संस्थापक स्वराज्य पार्टी ) :

” बहुत-से लोग महर्षि दयानन्द को सामाजिक और धार्मिक सुधारक कहते हैं परन्तु मेरी दृष्टि में तो वे सच्चे राजनितिज्ञ थे ; 40 वर्ष से कांग्रेस का जो कार्यक्रम रहा है, वह सब कार्यक्रम आज से 60 वर्ष पूर्व ऋषि दयानन्द ने देश के सामने रखा था। सारे देश में एक भाषा, खादी, स्वदेशी – प्रचार, पंचायतों की स्थापना, दलितोद्धार, राष्ट्रीय और सामाजिक एकता, उत्कट देशाभिमान तथा स्वराज्य की घोषणा, यह सब महर्षि दयानन्द ने देश को दिया है। वर्तमान कांग्रेस का प्रत्येक अंश भगवान दयानन्द ने ही बनाया है। सचमुच हम भाग्यहीन थे। यदि 60 वर्ष पहले, इस कार्यक्रम को समझ कर आचरण किया होता, तो भारतवर्ष कब का स्वतन्त्र हो गया होता | कोषाध्यक्ष नीरज कुमार ने कहा कि
घ) वेदोद्धारक दयानन्द

परम्परागत वेदाध्ययन पद्धति से वंचित भाष्यकारों ने वेद मंत्रों के अर्थ का अनर्थ कर दिया। सायण, महिधर, उवट आदि भारतीय भाष्यकारों तथा मैक्समूलर आदि पाश्चात्य विद्वानों के भाष्यों ने वेदों के उद्दात्त स्वरूप को विकृत रूप में प्रस्तुत किया। अनेक – ईश्वरवाद, देवी- देवताओं का पृथक अस्तित्व, मूर्तिपूजा, यज्ञों में गाय, अश्व आदि पशुओं की बलि, गोमांस भक्षण आदि का वेदों में वर्णित बता कर, इन भाष्यों ने जन मानस में वेद के प्रति अनास्था पैदा कर दी।

महर्षि दयानन्द ने अपने वेद भाष्य में इसका अन्त:साक्ष्यों ( Internal Evidences ) से इनका खण्डन किया। यजुर्वेद (1.1) के पहले ही मंत्र में ” यजमानस्य पशून्पाहि।” यजमान/ यज्ञकर्ता के पशुओं की रक्षा की प्रार्थना हैं। यज्ञ में पशु बलि के विधान की बात करना, वेद के प्रति घृणित भाव दर्शाता है।

इसके अतिरिक्त, वेदों में शब्द अनेकार्थक है। उदाहरणार्थ, ” अश्वा: कणा: गवास्तण्डुला मशकास्तुषा।” (अथर्ववेद 11.3.5) अर्थात् गेहूं के दाने अश्व हैं, चावल गौवें हैं, भूसा मच्छर हैं। ” श्याममयोsस्य मांसानि लोहितमस्य लोहितम्।” (अथर्ववेद 11.3.7) अर्थात् श्याम वर्ण मांस है; रक्तवर्ण लोहा है।

स्वामी जी ने वेद को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक घोषित किया। उन्होनें वेदों में भौतिक विज्ञान, नाव ( Ship), विमान ( Aeroplane) निर्माण विद्या का वर्णन बताया है। “समुद्रं गच्छ स्वाहाsन्तरिक्षं गच्छ स्वाहा” ( यजुर्वेद 6 .21) अर्थात् समुद्र में जाओ , अन्तरिक्ष में जाओं का स्पष्ट वर्णन है।
ज्ञानेश्वर प्रसाद आर्य ने कहा कि
स्वामी दयानन्द के वेद भाष्य के सम्बन्ध में योगी अरविन्द घोष एक निबन्ध (वैदिक मैग्ज़ीन लाहौर 1916 ) में लिखते हैं : ” दयानन्द की इस धारणा में कि वेद में धर्म और विज्ञान में दोनों सच्चाईयां पाई जाती हैं, कोई उपहासास्पद वा कल्पित बात नहीं। ….. वैदिक व्याख्या के विषय में मेरा विश्वास है कि वेदों की सम्पूर्ण अन्तिम व्याख्या कोई भी हो, दयानन्द को यथार्थ निर्देशों का प्रस्तुतकर्ता का सम्मान दिया जाएगा।…. दयानन्द ने उन दरवाज़ों की कुञ्जी ढूंढी है जिसे काल ने बन्द कर रखा था; तथा बन्द पड़े स्रोत की मोहरों को तोड़ कर फैंक दिया। ”

प्रो.मैक्समूलर तथा स्वामी दयानन्द समकालीन थे। उनका परस्पर संस्कृत में पत्र- व्यवहार होता था। स्वामी जी उन्हें ” मोक्ष मूलर ” सम्बोधित करते थे। स्वामी दयानन्द की ” ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ” पढ़ कर उनका हृदय-परिवर्तन हो गया है। उन्होंने भी स्वीकार कर लिया कि ये इन्द्र आदि ईश्वर के ही नाम हैं। अपने व्याख्यान- संग्रह ‘ India: What Can It Teach Us ? / भारत हमें क्या शिक्षा दे सकता है ? ‘ में कहते हैं :

” वे ( इन्द्र आदि देवता ) सभी परा को अभिव्यक्त करते हैं, दृश्य के पीछे अदृश्य, सान्त के भीतर अनन्त, लौकिक के ऊपर अलौकिक, दिव्य, सर्वव्यापक तथा सर्वशक्तिमान। ”
विनोद जी ने कहा कि
डं) समाज सुधारक दयानन्द

महर्षि दयानन्द सरस्वती वेद को ही भारतीय संस्कृति और वर्ण-आश्रम समाज व्यवस्था का आधार मानते हैं। कालान्तर में वैदिक विचारधाराओं से विमुख होने पर , कुरीतियों तथा कुप्रथाओं ने समाज को घेर लिया। इन में प्रमुख हैं : जन्मना जात-पात, स्त्रियों और शूद्रों को शिक्षा से वंचित रखना, सती प्रथा, विधवा विवाह निषेध, बाल विवाह, दहेज प्रथा, मृतक माता-पिता का श्राद्ध इत्यादि।

स्वामी जी ने वेदों , मनुस्मृति आदि सद्ग्रन्थों के प्रमाणों से, शास्त्रार्थों के माध्यम से, इनका खण्डन किया तथा अपने ग्रंथ ‘सत्यार्थप्रकाश’ में इनका वेद प्रतिपादित यथार्थ स्वरूप उजागर किया।

वर्णव्यवस्था

उन्होंने शास्त्रों से प्रमाणित किया कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का निर्धारण कर्म पर आधारित है न कि जन्म पर। शिक्षा- दीक्षा के उपरान्त आचार्य शिष्य के वर्ण का निश्चय करता है।

स्कन्ध पुराण ( नागर खण्ड, अध्याय 239, श्लोक 31) में भी स्पष्ट कहा गया है :
” जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते।”
अर्थात् जन्म से सभी शूद्र पैदा होते हैं, संस्कार से/ शिक्षा – दीक्षा के उपरान्त मनुष्य द्विज बनता है। आचार्य उसे दूसरा जन्म देता है, इसलिए वह द्विज कहलाता है।

भगवद्गीता (4.13) में भी कहा गया है :
” चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:”
अर्थात् मैंने गुण और कर्मों के अनुसार चार वर्णों की रचना की है। यहां जन्म का उल्लेख नहीं है।

मनुस्मृति (10.65) में वर्णों की अदला- बदली का वर्णन इस प्रकार किया गया है :

“शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम् ।”

अर्थात् शुभ कर्मो से शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है और बुरे कर्मों से ब्राह्मण शूद्र बन जाता है।

जन्मना जाति प्रथा ने जो देश की क्षति की है, वह अवर्णनीय है। हिन्दुओं का ईसाई तथा इस्लाम मत में धर्मान्तरण का सबसे बड़ा कारण यही है।
स्त्री शिक्षा

स्वामी जी ने स्त्री शिक्षा निषेध का घोर विरोध किया तथा वेदों के प्रमाणों से इसे अवैदिक प्रथा घोषित किया। हर वेद के मंत्र के आगे इसके ऋषि एवं देवता का उल्लेख होता है। बीसियों मंत्रों के आगे ऋषिकाओं का उल्लेख है। क्या वे बिना शिक्षा तथा वेदाध्ययन के ऋषिकाएं बन गईं ?

उपनिषदों में गार्गी, मैत्रेयी आदि विदुषियों की आध्यात्मिक चर्चा का वर्णन है। क्या वे बिना शिक्षा लिए आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा कर पाती थीं ?

अथर्ववेद (11.5.18) का मन्त्र है :
” ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्।”
अर्थात् कन्या ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके, वेदादि शास्त्रों को पढ़ कर युवा पति को प्राप्त करे।

विवाह संस्कार में श्रौतसूत्र का विधान है :
” इयं मन्त्रं पत्नी पठेत् ”
अर्थात् यह मन्त्र पत्नी पढ़े। क्या बिना शिक्षा लिए कन्या मंत्र पढ़ सकती थी ?

इस प्रकार स्वामी जी ने स्त्रियों के लिए शिक्षा के द्वार खोले। आज कन्याएँ वेदाध्ययन करती हैं तथा महिलाएं उच्च शिक्षा प्राप्त करके प्रतिष्ठित पदों पर आसीन हैं। (खेद है कि दक्षिण भारत की वेद – पाठशालाओं में अभी भी कन्याओं को वेदपाठ की अनुमति नहीं है।)

स्वामी जी के इस उपकार का वर्णन करते हुए, 1975 में, आर्यसमाज के शताब्दी उत्सव पर तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने कहा था , ” यदि स्वामी दयानन्द ने स्त्री शिक्षा आन्दोलन न चलाया होता, तो मैं आज देश की प्रधानमंत्री न होती। ”

पितृश्राद्ध

दिवंगत माता- पिता आदि का पितृपक्ष में ब्राह्मणों को खाना खिलाना, दान देना आदि श्राद्ध कर्म कहलाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धाभाव से किया गया कार्य। स्वामी जी ने कहा है कि जीवित माता- पिता की सेवा करना ही सच्चा श्राद्ध है। मृत्यु उपरान्त उनकी स्मृति में किया गया कोई भी दान आदि शुभ कार्य आपका पुण्य है, जिसका फल आपको मिलेगा, आपके दिवंगत माता- पिता को नहीं। यह समझना कि पितृपक्ष में ब्राह्मणों या अनाथों को खिलाया हुआ खाना, या दिया हुआ दान, आपके दिवंगत माता पिता व अन्य पितरों के पास पहुँच जाएगा, भ्रमित धारणा है।

हम भी तो पूर्व जन्म में किसी के माता पिता थे। वे भी तो पितृपक्ष में हमारे लिए श्राद्ध कर्म कर रहे होंगे। किसी को पितृपक्ष में किसी भी दिन उदरपूर्ति की अनुभूति हुई ?

स्वामी दयानन्द के समाज-सुधार की सूची काफ़ी लम्बी है। स्थानाभाव के कारण अधिक विवरण सम्भव नहीं।

च) प्रतिष्ठित महानुभावों की स्वामी दयानन्द को श्रद्धाञ्जलियां :

i) सरदार वल्लभ भाई पटेल —

” स्वामी दयानन्द जी के राष्ट्र प्रेम के लिए मुझे उनके प्रति आदर है।… हमारे समाज में उस समय जो जो त्रुटियाँ, कुरीतियां, वहम, अज्ञानता और बुराइयां थी, स्वामी जी ने उनको दूर करने के लिए बल लगाया। यदि स्वामी जी न होते तो हिन्दू समाज की क्या हालत होती, इसकी कल्पना भी कठिन है। आज देश में जो भी कार्य चल रहे हैं , उनका मार्ग स्वामी जी वर्षों पूर्व बना गए थे। शताब्दियों में ऐसे विरले महापुरुष मिलते हैं। समाज में जब बुराइयां घर कर जाती हैं , तब ईश्वर ऐसी विभूतियों को भेजता है।”

ii) राजगोपालाचार्य —

स्वामी दयानन्द की शिक्षाएं महान् हैं। वे हिंदुत्व में स्थायी स्थान प्राप्त कर चुकी हैं। स्वामी जी की शिक्षाओं को अपनाने से हिंदुत्व परिपक्व होगा। स्वामी जी को हिंदुत्व का उद्धारक कहा जा सकता है। ”

iii) वीर सावरकर —

” महर्षि दयानन्द स्वाधीनता – संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा और हिन्दूजाति के रक्षक थे। महर्षि जी का लिखा अमर ग्रन्थ ‘ सत्यार्थप्रकाश ‘ हिन्दूजाति की रगों में उष्ण – रक्त का संचार करने वाला है । ‘ सत्यार्थप्रकाश ‘ की विद्यमानता में, कोई विधर्मी अपने मज़हब की शेख़ी नहीं मार सकता।”

iv) पट्टाभि सीतारमैय्या ( कांग्रेस अध्यक्ष ) —

” स्वतन्त्रता संग्राम में 80% लोग आर्य समाजी थे।”

छ) निष्कर्ष

तत्कालीन राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने कहा था कि स्वामी दयानन्द की समाज-सुधार की सभी कार्ययोजनाओं को संविधान में समाहित किया गया है।

इतना ही नहीं, पौराणिकों ने भी आर्य समाज के कार्यक्रमों को अपना लिया है : जैसे मुसलमानों की शुद्धि करके पुनः हिन्दू धर्म का आलिंगन ( घर वापसी ) , विधवा विवाह, बालिकाओं / महिलाओं की शिक्षा, सती प्रथा का बहिष्कार, बाल-विवाह से परहेज़, दलित-आदिवसी जिन्हें वे अछूत कहते थे, उनसे मेल-मिलाप, वैवाहिक व सामान्य जीवन में जन्मना जातिप्रथा में शिथिलता इत्यादि।

पौराणिक धीरे-धीरे आर्यसमाज के पथ पर चल रहे हैं। पाखण्डवाद के प्रति भी वे जागरूक हो रहे हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेद का यथार्थ स्वरूप उजागर करने के लिए तथा वेद को प्रतिष्ठित स्थान दिलाने के लिए, प्राणों तक की बलि दे दी। दुर्भाग्यवश ,अभी भी उन के वेद भाष्य को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्थान नहीं दिया गया। प्राच्य विद्याओं का पुनरूत्थान करने के लिए प्रतिबद्ध शासकों से एवं विश्वविद्यालयों के कुलपति महोदयों से विनम्र अनुरोध है कि कम से कम सायण आदि के वेदभाष्यों के साथ दयानन्द वेदभाष्य को भी पाठक्रमों में सम्मिलित किया जाए।
देश व समाज के प्रति स्वामी दयानन्द सरस्वती के योगदान के लिए ,उनके जन्म दिवस पर कोटि कोटि नमन | इस कार्यक्रम में उपस्थित जिला आर्यसभा के प्रधान अवध बिहारी मेहता, मंत्री डॉक्टर प्रकाश रंजन, उप प्रधान डॉक्टर सुखलाल प्रसाद, उप प्रधान महावीर विद्यासागर, कोषाध्यक्ष नीरज कुमार पुस्तकालय अध्यक्ष जनेश्वर प्रसाद आर्य , विनोद जी एवं जिला के सभी आर्य समाज के प्रधान , मंत्री एवं सैकड़ो आर्य सदस्य उपस्थित हुए |

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